श्रेष्ठ कर्म : श्रेष्ठ जीवन का आधार
श्रेष्ठ कर्म
: श्रेष्ठ जीवन का आधार
डॉ. एम. डी. थॉमस
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जीने का सीधा मतलब है काम करना। काम किये बिना इस दुनिया में वजूद रखना नामुमकिन ही नहीं, बेकार भी है। यह बात समस्त जीवों पर किसी-न-किसी प्रकार से लागू होती है। इन्सान के लिए काम एक बड़ी हकीकत है। लगातार मेहनत चलती रहे, यही ज़िन्दगी को आगे बढ़ाने का तरीका है। कर्म ही ज़िन्दगी है।
‘धर्म’ शब्द का बुनियादी अर्थ है—धारण करना। खुद को धारण करना है, खुदा को धारण करना है, दूसरों को धारण करना है, मूल्यों को धारण करना है और ज़िन्दगी को धारण करना है। धारण करने की इस कभी नहीं टूटने वाली प्रक्रिया में कर्तव्यों की अहम् भूमिका होती है। धर्म के भारतीय मतलबों में ‘कर्तव्य’ ही सबसे खास है। अपने कर्तव्यों को अमलीजामा पहनाया जाये, इसके लिए कर्म करना जरूरी होता है। कर्म ही धर्म है।
भारतीय विचारधारा में आदर्श जीवन के लिए सात्विक विचार की परिकल्पना है। लेकिन, सात्विक विचार सिद्धान्त है। सात्विक आचार है व्यवहार। सात्विक विचार भीतरी पहलू है, जबकि सात्विक आचार बाहरी पहलू है। भीतरी और बाहरी पहलुओं में तालमेल की जरूरत है। कर्म सात्विक आचार है।
गरिमा काम की आत्मा है। हर काम की अपनी-अपनी अहमियत है। काम को लेकर ऊँच-नीच का भाव रखना असल में काम की ही निन्दा है। समाजिक जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए तरह-तरह के काम करने होते हैं। भिन्न-भिन्न कामों में बराबरी का भाव रखना बुनियादी इन्साफ है। काम कोई भी हो, अच्छे ढंग से किया जाय, इसी में काम की गरिमा जाहिर होती है। कार्य की गुणवत्ता ही कार्य की गरिमा है।
भागवत गीता का आदर्श ‘निष्काम कर्म’ काम करने की मूल प्रेरणा देता है। फल की इच्छा किये बिना कर्म किया जाय। अच्छा कर्म अच्छा फल लाएगा, इसमें कोई शक नहीं है। किन्तु, फल आये या ना आये, इसकी फिक्र नहीं करते हुए अपने कर्म पर ही मन केन्द्रित करे, यही कर्तव्य-पालन है। कर्म से चिपक नहीं जाना चाहिए। लगन के साथ कर्म करना भर है। निष्काम कर्म ही श्रेष्ठ कर्म है।
कर्म आपसी व्यवहार है। ईसा का कहना है —‘जैसा व्यवहार तुम दूसरों से चाहते हो, ठीक वैसा ही व्यवहार उनके साथ किया करो (बाइबिल, मत्ती 7.12)’। दूसरों से हर किसी की भाँति-भाँति की अपेक्षाएँ हैं। दूसरों की अपेक्षाओं को पूरा करना भी बराबर महत्व का काम है। इस आपसी लेन-देन में खुद पहल करें, इसमें अपना बड़प्पन है। ऐसे आचरण में ही इन्सानी रिश्ते का सन्तुलन भी निहित है। ऐसे आदर्श व्यवहार श्रेष्ठतर कर्म है।
कर्म अपने आप में अध्यात्म है। अध्यात्म के दो पहलू होते हैं — ईश्वर से जुड़ना और इन्सान से जुड़ना। लेकिन ये दोनों अलग-अलग कार्य नहीं होते हैं। ईसा का कहना है —‘जब आपने अपने किसी भाई या बहन के लिए चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो, जो कुछ किया है वह मेरे लिए ही किया (बाइबिल, मत्ती 25.40)’। यानि, किसी इन्सान के लिए किया गया काम ईश्वर के लिए किये जाने के बराबर है। इन्सान की सेवा असल में ईश्वर की पूजा है। साथी इन्सानों की सेवा श्रेष्ठ कर्म है।
जैन दर्शन का आदर्श है — जीओ और जीने दो। अपनी ज़िन्दगी को खुद जीये और दूसरों को अपनी-अपनी जिन्दगी जीने दें, यह अहम् बात है। लेकिन, ये काफी नहीं है। ‘जीने की मदद करो’—यह बात भी जरूरी है। जो भी इन्सान अपने सम्पर्क में आये, उसकी मदद की जाए, यही जीने की कला है। खास तौर पर जरूरतमन्दों को, मजदूरों को, पद-दलितों, आवाजहीनों और हाशिये पर सरकाये हुओं को जीने की मदद की जाए, इसी में इन्सानियत का असली रूप पाया जाता है।
मानव समाज, खास तौर पर वर्तमान समाज, विभिन्न समुदायों में बिखरा हुआ है। जाति, वर्ग, पेशा, महजब, राष्ट्रीयता, विचारधारा, रीति-रिवाज, खान-पान आदि बातों को लेकर अपनी-अपनी पहचान की चेतना बढ़ती जा रही है। यह चेतना अक्सर टकराहट के कगार पर पहुँचती है। सम्मिलित पहचान की ओर इन्सानी समाज को जागृत करना होगा। इस ओर काम करना और समुदायों को एक-दूसरे से जोड़ना वक्त की पुकार है। एक-दूसरे के बीच आपसी सद्भाव और तालमेल बढ़ाने के लिए, देश के निर्माण के लिए और सामाजिक एकता के लिए, किया जाने वाला काम श्रेष्ठ कर्म है।
इन्सान व्यक्ति के रुप में वजूद रखता है। वावजूद इसके, वह समाज से पैदा होता है और समाज में ही रहता है। हर इन्सान के काम का अपना-अपना दायरा है। अपने-अपने दायित्वों को खुद निबाहना भी जरूरी है। फिर भी, समाजिक जीव होने के नाते इन्सान को मिलकर काम करना बेहद जरूरी है। असली इन्सानी सँस्कृति वही है। भिन्न-भिन्न समुदाय एक-दूसरे से साथ मिलकर काम करें, समाज की असली प्रगति का यही रास्ता है। सम्मिलित लक्ष्य और संकल्प में काम की कामयाबी सुरक्षित है। साझ काम ही श्रेष्ठ कर्म है।
कहीं किसी प्रसाधन-कक्ष के सामने पढ़ने को मिला था —‘लीव द प्लेस बेट्टर दैन यू फाउण्ड इट’। यानि, ‘इस जगह को बेहतर हालत में छोड़े’। प्रसाधन-कक्ष के लिए मतलब साफ है—हरेक अपना फर्ज निभाये और अपने पीछे आने वाले का ख्याल करे।
यह निर्देश पूरी ज़िन्दगी पर भी खरी उतरती है। जब हम इस दुनिया में पैदा हुए थे, अपने परिवार, समुदाय और समाज जिस हालत में थे, दुनिया को छोड़ने समय हम उन्हें बेहतर हालत में पहुँचाकर छोड़े। इस निर्देश पर अमल करने में अपने पुरुषार्थ की सिद्धि है। बेहतर समाज के निर्माण के लिए किया जाने वाला काम श्रेष्ठ कर्म है।
अंग्रेजी साहित्य के मशहूर कवि लोंगफेलो की एक पंक्ति है — ‘लेट एवरी टुमोरो फाइन्ड यू फारदर दैन टुडे’। अर्थात्, आपका हर आने वाला कल आपको आगे पहुँचा हुआ पायें। मतलब है—आप हर पल प्रगति करते रहें। बहुत लोग भूतकाल के तथ्यों में जकड़ जाते हैं। वर्तमान और भविष्य दोनों उन्हें नसीब नहीं होते हैं। हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार वृन्दावनलाल शर्मा की बात इस समस्या का हल सुझते हैं —‘अतीत को जानो और पहचानो, वर्तमान को देखो और उसमें विचरण करो और भविष्य की आशा को प्रबल करो’। भूतकाल की सार्थकता वर्तमान में हमें पहुँचाने में हैं। वर्तमान का दायित्व भविष्य की ओर ले जाना है। प्रगति भूतकाल की नींव पर भविष्य की ओर ले जाने वाला कर्म श्रेष्ठ कर्म है।
काम में ढीली मानसिकता एक आम बात है। काम से बचके चलने की कोशिश भी कम नहीं है। ‘चलेगा’ सोच श्रेष्ठ कर्म का दुश्मन है। जिसमें काम के प्रति निष्ठा हो, ईमानदारी हो, काम में लगन हो, वह कर्म के लायक है। काम ईश्वर की ओर से दी गयी एक पुकार है। यह ईश्वर की देन है। कर्म का अपना मिशन है। कर्म ही ईश्वर है। इसलिए कर्म के प्रति पूज्य-भाव अहम् है। कर्म अपने आप में आध्यात्मिकता है। आदर्श जीवन के लिए ऐसा आदर्श कर्म जरूरी है। ऐसा कर्म ही असल में श्रेष्ठ कर्म है। श्रेष्ठ कर्म की नींव पर ही श्रेष्ठ जीवन की इमारत खड़ी होती है। श्रेष्ठ कर्म ही इन्सानी ज़िन्दगी की पारलौकिक तहजीब है। ऐसे पुनीत कर्म की तहजीब में सत्युग की खुबियाँ निखरती रहेगी। मानव समाज का कल्याण भी उसी में निहित है।
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लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।
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गगन स्वर (सामाजिक एवं साहित्यिक पत्रिका, मासिक), गाजियाबाद, पृष्ठ संख्या 42-43 में -- अक्तूबर-नवम्बर 2008 में प्रकाशित
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